टैगोर के शेरों से सूफियों की रोशन आंखें झांकती हैं, वे कहते थे अपनी आंखें खोल कि तेरा खुदा कहीं एक जगह नहीं रविंद्रनाथ टैगोर बहुत बड़े शायर और गीतकार थे। उन्होंने एक हजार नज्में और दो हजार गीत लिखे। कुछ लोगों का कहना है कि उनके गीतों और नज्मों की तादाद 5 हजार के करीब है। उनकी कविताओं के हमें 50 संकलन मिलते हैं। उनकी कहानियों के भी कई संकलन हैं। बंगाली भाषा का साहित्य उनकी कहानियों के बगैर मुफलिस और खाली है। उन्होंने ड्रामे, नृत्य नाटिकाएं, नाटिकाएं, सैकड़ों लेख, पत्र, सफरनामे और दो हिस्सों में अपनी आत्मकथा लिखी। पहला हिस्सा अधेड़ावस्था में और दूसरा हिस्सा उस वक्त जब उनका सफर-ए-जिंदगी अपने आखिरी दौर में था या कह लें कि तमाम हो रहा था। गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद पश्चिम में पहुंचा तो टैगोर सब तरफ शोहरत की बुलंदियों पर पहुंच गए और उन्हें अदबी नोबेल प्राइज दिया गया। उनका मुकाम बहुत उंचा हो गया। टैगोर के बारे में लिखा गया कि उनके शेरों से सूफियों की रोशन आंखें झांकती हैं। ये दुरुस्त है कि टैगोर की नज्मों और गीतों में खुदा का तसव्वुर झलकता है, लेकिन ये वो खुदा नहीं है कि जिसे मंदिरों या मस्जिदों में तलाश किया जाए। टैगोर ने लिखा है कि अपनी आंखें खोल तेरा खुदा कहीं एक जगह नहीं है। वो हर उस जगह है जहां किसान हल चला रहा है, मजदूर पत्थर तोड़ रहा है, वो धूप और ताप में उनके साथ खड़ा है। टैगोर जिन्होंने 15 साल की उम्र में शेक्सपियर की एक कहानी का अनुवाद बांग्ला में किया था, कई अदीबों को पढ़ चुके थे। उन्होंने अदब के हर चश्मे से अपनी प्यास बुझाई और इसीलिए हमें उनकी नज्मों, कहानियों, उनके लेखों में किसी बड़ी दरिया के फैलाव का मंज़र नजर आता है। जब फ्रॉस्ट ने टैगोर के साहित्य का अनुवाद रूसी में किया तो उनकी शायरी के शानदार धारे को दाद देते हुए गंगा के बहाव की शक्ल दे दी। टैगोर का जहन पश्चिमी तहजीब से जुड़ा था, जिसमें पश्चिम का अदब और साहित्य था। खुदा और महबूब को एक मानने की वजह से पश्चिम से उनका रिश्ता गहरा था। टैगोर की कहानियां, उनकी शायरी, उनके ड्रामे, उनके नॉवेल हमें एक ऐसे जहां से मिलाते हैं जो बिल्कुल अलग है। साल 1910 में उनका नॉवेल ‘गोरा’ पब्लिश हुआ जिसमें मोहब्बत की बहुत ही सादी कहानी है, लेकिन उसके जरिए जात-पात की व्यवस्था पर गहरा वार किया गया है। यह बगैर कुछ कहे यह भी बताती है कि 1857 के फौरन बाद अमीर, जागीरदार और मनसबदार कहलाने वाले लोग वही थे, जिन्होंने जंग के जमाने में हंगामों के वक्त अंग्रेजों की जानें बचाई थीं और उनके बदले में इनाम पाया था। नॉवेल का ऐसा ही एक अहम किरदार गोरा का है जो एक दुनियादार शख्स है और उतना ही सख्त भी है। उसे जुनून की हद तक अपने ब्राह्मण होने पर नाज है। लेकिन नॉवेल के आखिर में उसके जुनून और जाति के अहं की दीवार उसी पर आ गिरती है, जब उसे मालूम चलता है कि वह तो दरअसल हिंदुस्तानी ही नहीं है। उसकी आयरिश मां 1857 के जमाने में उसे जन्म देते हुए खत्म हो गई थी, जबकि उसका अंग्रेज बाप हिंदुस्तान की जंगे आजादी के वक्त मारा गया था। उसकी परवरिश एक ब्राह्मण घराने में हुई, इसलिए वह खुद को ब्राह्मण समझता रहा। उसे गोद लेने वाली बांझ मां ने उससे सच छिपाया। गोरा को अंग्रेजों और क्रिश्चियनों से नफरत थी। वह ब्राह्मणों के अलावा हर एक को कमतर समझता था। लेकिन असल में जब उसे हकीकत मालूम चलती है तो वो यह कहता है कि आज मैं वाकई हिंदुस्तानी हूं और हिंदुस्तान का हर मजहब मेरा मजहब है, हर फिरका मेरा फिरका है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today साहित्य और विज्ञान की दो महान हस्तियां रवींद्रनाथ टैगारे और अल्बर्ट आइंस्टाइन, फोटो 1930 का (स्रोत : यूनेस्को गैलरी) https://ift.tt/32fxJeV

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रविंद्रनाथ टैगोर बहुत बड़े शायर और गीतकार थे। उन्होंने एक हजार नज्में और दो हजार गीत लिखे। कुछ लोगों का कहना है कि उनके गीतों और नज्मों की तादाद 5 हजार के करीब है। उनकी कविताओं के हमें 50 संकलन मिलते हैं।

उनकी कहानियों के भी कई संकलन हैं। बंगाली भाषा का साहित्य उनकी कहानियों के बगैर मुफलिस और खाली है। उन्होंने ड्रामे, नृत्य नाटिकाएं, नाटिकाएं, सैकड़ों लेख, पत्र, सफरनामे और दो हिस्सों में अपनी आत्मकथा लिखी।

पहला हिस्सा अधेड़ावस्था में और दूसरा हिस्सा उस वक्त जब उनका सफर-ए-जिंदगी अपने आखिरी दौर में था या कह लें कि तमाम हो रहा था। गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद पश्चिम में पहुंचा तो टैगोर सब तरफ शोहरत की बुलंदियों पर पहुंच गए और उन्हें अदबी नोबेल प्राइज दिया गया। उनका मुकाम बहुत उंचा हो गया।

टैगोर के बारे में लिखा गया कि उनके शेरों से सूफियों की रोशन आंखें झांकती हैं। ये दुरुस्त है कि टैगोर की नज्मों और गीतों में खुदा का तसव्वुर झलकता है, लेकिन ये वो खुदा नहीं है कि जिसे मंदिरों या मस्जिदों में तलाश किया जाए। टैगोर ने लिखा है कि अपनी आंखें खोल तेरा खुदा कहीं एक जगह नहीं है। वो हर उस जगह है जहां किसान हल चला रहा है, मजदूर पत्थर तोड़ रहा है, वो धूप और ताप में उनके साथ खड़ा है।

टैगोर जिन्होंने 15 साल की उम्र में शेक्सपियर की एक कहानी का अनुवाद बांग्ला में किया था, कई अदीबों को पढ़ चुके थे। उन्होंने अदब के हर चश्मे से अपनी प्यास बुझाई और इसीलिए हमें उनकी नज्मों, कहानियों, उनके लेखों में किसी बड़ी दरिया के फैलाव का मंज़र नजर आता है।

जब फ्रॉस्ट ने टैगोर के साहित्य का अनुवाद रूसी में किया तो उनकी शायरी के शानदार धारे को दाद देते हुए गंगा के बहाव की शक्ल दे दी। टैगोर का जहन पश्चिमी तहजीब से जुड़ा था, जिसमें पश्चिम का अदब और साहित्य था। खुदा और महबूब को एक मानने की वजह से पश्चिम से उनका रिश्ता गहरा था।

टैगोर की कहानियां, उनकी शायरी, उनके ड्रामे, उनके नॉवेल हमें एक ऐसे जहां से मिलाते हैं जो बिल्कुल अलग है। साल 1910 में उनका नॉवेल ‘गोरा’ पब्लिश हुआ जिसमें मोहब्बत की बहुत ही सादी कहानी है, लेकिन उसके जरिए जात-पात की व्यवस्था पर गहरा वार किया गया है।

यह बगैर कुछ कहे यह भी बताती है कि 1857 के फौरन बाद अमीर, जागीरदार और मनसबदार कहलाने वाले लोग वही थे, जिन्होंने जंग के जमाने में हंगामों के वक्त अंग्रेजों की जानें बचाई थीं और उनके बदले में इनाम पाया था।

नॉवेल का ऐसा ही एक अहम किरदार गोरा का है जो एक दुनियादार शख्स है और उतना ही सख्त भी है। उसे जुनून की हद तक अपने ब्राह्मण होने पर नाज है। लेकिन नॉवेल के आखिर में उसके जुनून और जाति के अहं की दीवार उसी पर आ गिरती है, जब उसे मालूम चलता है कि वह तो दरअसल हिंदुस्तानी ही नहीं है। उसकी आयरिश मां 1857 के जमाने में उसे जन्म देते हुए खत्म हो गई थी, जबकि उसका अंग्रेज बाप हिंदुस्तान की जंगे आजादी के वक्त मारा गया था।

उसकी परवरिश एक ब्राह्मण घराने में हुई, इसलिए वह खुद को ब्राह्मण समझता रहा। उसे गोद लेने वाली बांझ मां ने उससे सच छिपाया। गोरा को अंग्रेजों और क्रिश्चियनों से नफरत थी। वह ब्राह्मणों के अलावा हर एक को कमतर समझता था। लेकिन असल में जब उसे हकीकत मालूम चलती है तो वो यह कहता है कि आज मैं वाकई हिंदुस्तानी हूं और हिंदुस्तान का हर मजहब मेरा मजहब है, हर फिरका मेरा फिरका है।



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साहित्य और विज्ञान की दो महान हस्तियां रवींद्रनाथ टैगारे और अल्बर्ट आइंस्टाइन, फोटो 1930 का (स्रोत : यूनेस्को गैलरी)


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