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जब एक एक्ट्रेस ने भगत सिंह को डाकू बताया तो मनोज कुमार ने बनाई थी फिल्म 'शहीद', बोले- मुझे भगत सिंह की मां के पैर छूने का सौभाग्य मिला था

'हर नागरिक का कर्तव्य है कि यह आजादी जो कइयों के बलिदान के बाद हासिल हुई है, इसे बचाने के किए वे भी बलिदान देने को तैयार रहें। लेकिन हम सोचते हैं कि हम सिक्योर हैं।' यह कहना है 83 साल के अभिनेता मनोज कुमार का, जिन्हें उनकी देशभक्ति से भरी फिल्मों के चलते भारत कुमार के नाम से भी जाना जाता है। दैनिक भास्कर से खास बातचीत में उन्होंने अपनी जिंदगी के कुछ अनुभव साझा किए, जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से जुड़े हुए हैं।

जब एक एक्ट्रेस ने भगत सिंह को डाकू बताया

मनोज कुमार कहते हैं- गुलामी में हम पर जो बीता, देश पर जो बीता, वह आज के दौर के लोगों ने नहीं देखा। जो देश की खातिर फंदे पर झूले , जिन्होंने लाठियां खाईं, जिन्होंने काला पानी की सजा काटी, उनकी जीवनी स्कूल-कॉलेज में पढ़ने के लिए नहीं मिलीं। एक बात बताता हूं, लेकिन यह किसी की निंदा नहीं है। मैं एक फिल्म की शूटिंग कर रहा था और मेरे साथ जानी-मानी हीरोइन थीं। शॉट के बीच में मुझे टाइम मिलता था तो लिखने बैठ जाता था। लंच टाइम में भी लिखता था।

उन्होंने मुझसे पूछा कि आप क्या लिख रहे हैं? मैंने कहा कि भगत सिंह पर कहानी लिख रहा हूं। मैंने उनसे पूछा- आप जानती हैं कि भगत सिंह कौन थे? उन्होंने कहा- जाहिरतौर पर जानती हूं। वे डाकू थे। उसी वक्त मैंने फैसला कर लिया कि अब तह फिल्म जरूर बनाऊंगा। फिर मैंने अपने मित्र केवल कश्यप के साथ मिलकर फिल्म 'शहीद' बनाई, तब लोगों को पता चला कि भगत सिंह कौन थे।

भगत सिंह की मां के पैर छूने का सौभाग्य मिला

बकौल मनोज- मैं 1956 में मुंबई आया। शिवाजी पार्क में रहता था। पता लगा कि वीर सावरकर जी नजदीक में ही रहते हैं। कई बार उनसे मिलने गया तो उनके पांव दबाने का मौका मिला। मैं पंजाब में गांव गया तो भगत सिंह की माता जी के पांव छूने को मिले। उनके लिए हॉस्पिटल भी गया। बटुकेश्वर दत्त से मिला।

मैंने 1947 का बंटवारा देखा है। जानता हूं कि लाहौर से दिल्ली आते वक्त हमारे घर वालों का कैसे कत्ल कर दिया गया था? कैसे हम लाशों के बीच खून से लथपथ होकर घर से रिफ्यूजी कैंप में आए थे? हमारे तन-मन पर बीती है। आज की पीढ़ी को जितने जतन से यह सब दिखाना चाहिए, हम नहीं दिखा पाए।

हमारी सरकारों ने भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्लाह खान जैसे क्रांतिकारियों के बारे में बच्चों को पढ़ने नहीं दिया। बच्चों ने तो यही सुना है कि दे दी हमें आजादी बिना खडग़ बिना ढाल। वे समझते हैं कि उन्हें ऐसे आजादी ऐसे ही मिल गई। बलिदान से जो आजादी हासिल की है, उसे कायम रखना, उसको अच्छा बनाना चाहिए। इसके लिए अगर बलिदान देना पड़े, तो भी हमें हिचकना नहीं चाहिए।

मैं कहता हूं कि जो विपक्षी पार्टियां हैं, उन्हें सरकार से सवाल करना चाहिए। संसद में करें, विधानसभा में सवाल करें। सेना पर तो शक न करें। आज सेना पर शक होता है, जनरल की बात पर शक होता है, इससे उनका मनोबल टूटता है। वे बर्फ की चट्टानों पर रात-दिन ठिठुर कर हमारी रक्षा करते हैं, तब हम चैन से सोते हैं। फिर उनकी बहादुरी, उनकी दिलेरी पर शक क्यों करना?

हम सैनिक नहीं बन सकते तो कम से कम सैनिक की जय करने वाले तो बनें। कभी-कभी लगता है कि अभी इस देश में बहुत से जयचंद हैं, जो पृथ्वीराज चौहान को धोखा देते हैं। 'जीवन जिएं तो ऐसा जिएं कि जिसमें कुछ आस तो हो, कृष्ण की थोड़ी लीला हो राम का कुछ बनवास तो हो।'

मनोज कुमार का पसंदीदा गीत

मनोज ने बताया- यह फिल्म 'तलाक' (1958) का गाना है। इसमें राजेंद्र कुमार, कामिनी कदम थीं। हनी ईरानी की पहली पिक्चर थी। महेश कौल इसके डायरेक्टर थे। गीत के बोल महाकवि प्रदीप के थे, जो इस प्रकार हैं:-

कहनी है एक बात हमें, इस देश के पहरेदारों से।
संभल के रहना अपने घर में, छिपे हुए गद्दारों से।।
झांक रहे हैं अपने दुश्मन, अपनी ही दीवारों से।
संभल के रहना अपने घर में, छिपे हुए गद्दारों से।।

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